दुनिया ने बस थका ही दिया काम कम हुए
तेरी गली में आए तो कुछ ताज़ा-दम हुए
उक़्दा खुला तो दर्द के रिश्ते बहम हुए
दामन के साथ अब के गरेबाँ भी नम हुए
जब से असीर-ए-सिलसिला-ए-बेश-ओ-कम हुए
हम को सलीब अपने ही नक़्श-ए-क़दम हुए
बदली ज़रा जो तर्ज़-ए-ख़िराम-ए-सितारगाँ
नुक़्तों में आँख बीच सहीफ़े रक़म हुए
थे मुंतज़िर हमारे भी गुल-चेहरगान-ए-शहर
लेकिन रिहा गिरफ़्त-ए-जहाँ से न हम हुए
रह कर जिन इंतिहाओं में अपनी गुज़र गई
इस तरह जीने वाले तो जाँ-बर ही कम हुए
दीवार पर गड़े हुए टुकड़े पे काँच के
ये किस हिसार-ए-रंग में महसूर हम हुए
चश्मक ये धूप छाँव की और एक ज़र्द फूल
इक जान-ए-ना-तवाँ पे हज़ारों सितम हुए
यकता ओ बे-नज़ीर है वो क्या उसे ग़रज़
ख़ारिज हुए कि दाख़िल-ए-काबा सनम हुए
'शाहीन' थे कमाल के रुतबा-शनास-ए-दहर
पर अपनी मंज़िलत से ख़ुद आगाह कम हुए
ग़ज़ल
दुनिया ने बस थका ही दिया काम कम हुए
शाहीन ग़ाज़ीपुरी