दुनिया में कुछ अपने हैं कुछ बेगाने अल्फ़ाज़
किस को इतनी फ़ुर्सत है जो पहचाने अल्फ़ाज़
रेग-ए-अलामत में भी जल कर पा न सके मफ़्हूम
सहरा-ए-मअ'नी में भी भटके अनजाने अल्फ़ाज़
दश्त-ए-अज़ल से दश्त-ए-अबद तक छान चुका में ख़ाक
और कहाँ ले जाएँगे अब भटकाने अल्फ़ाज़
बे-म'अनी माहौल में रह कर ज़ेहन हुआ माऊफ़
मुझ को भी पागल कर देंगे दीवाने अल्फ़ाज़
अक्सर आधी रात में ले कर कुछ पथरीले ख़्वाब
शीशा-ए-ज़ेहन से आ जाते हैं टकराने अल्फ़ाज़
शेर-ओ-सुख़न के मय-ख़ाने का मैं हूँ इक मय-ख़्वार
मेरे लिए बादा है तख़य्युल पैमाने अल्फ़ाज़
'कैफ़' कभी इक शेर में ढलना होता है दुश्वार
और कभी ख़ुद बन जाते हैं अफ़्साने अल्फ़ाज़
ग़ज़ल
दुनिया में कुछ अपने हैं कुछ बेगाने अल्फ़ाज़
कैफ़ अहमद सिद्दीकी