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दुनिया में जो समझते थे बार-ए-गिराँ मुझे | शाही शायरी
duniya mein jo samajhte the bar-e-giran mujhe

ग़ज़ल

दुनिया में जो समझते थे बार-ए-गिराँ मुझे

रईस सिद्दीक़ी

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दुनिया में जो समझते थे बार-ए-गिराँ मुझे
वो ही सुना रहे हैं मिरी दास्ताँ मुझे

मुड़ मुड़ के देखता था तिरे नक़्श-ए-पा को मैं
तन्हा समझ के चल दिया जब कारवाँ मुझे

दो गाम मेरे साथ चले राह-ए-इश्क़ में
मिलता नहीं है ऐसा कोई राज़-दाँ मुझे

ख़ामोशियों से राब्ता क़ाएम जो कर लिया
दुनिया समझ रही है अभी बे-ज़बाँ मुझे

मैं ने 'रईस' ख़िदमत-ऐ-शेर-ओ-सुख़न जो की
इस वास्ते अज़ीज़ है उर्दू ज़बाँ मुझे