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दुनिया को जब पहचानी तो काँप गई | शाही शायरी
duniya ko jab pahchani to kanp gai

ग़ज़ल

दुनिया को जब पहचानी तो काँप गई

जानाँ मलिक

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दुनिया को जब पहचानी तो काँप गई
सर से जब गुज़रा पानी तो काँप गई

पास रहा तो क़ुर्बत का एहसास न था
उस ने जाने की ठानी तो काँप गई

घर से बाहर जाँ-लेवा सन्नाटा था
देखी शहर की वीरानी तो काँप गई

फूलों के मल्बूस में कैसा लगता था
देखी पेड़ की उर्यानी तो काँप गई

हिज्र की शब ने 'जानाँ' क्या तहरीर किया
देखी अपनी पेशानी तो काँप गई