EN اردو
दुनिया के हैं न दीन के दिलबर के हो गए | शाही शायरी
duniya ke hain na din ke dilbar ke ho gae

ग़ज़ल

दुनिया के हैं न दीन के दिलबर के हो गए

ख़ार देहलवी

;

दुनिया के हैं न दीन के दिलबर के हो गए
हम दिल से कलमा-गो किसी काफ़िर के हो गए

उट्ठे न बैठ कर कभी कू-ए-हबीब से
उस दर पे क्या गए कि उसी दर के हो गए

ऐ चश्म-ए-यार मान गए तेरे सेहर को
दिल दे के मो'तक़िद तिरे मंतर के हो गए

हम अर्ज़-ए-हाल कर न सके उफ़-रे रोब-ए-हुस्न
जाते ही उन के सामने पत्थर के हो गए

ऐ 'ख़ार' दिल जिगर पे ही क़ाबू नहीं रहा
हम से ख़िलाफ़ ग़ैर तो क्या घर के हो गए