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दुनिया का ग़म ही क्या ग़म-ए-उल्फ़त के सामने | शाही शायरी
duniya ka gham hi kya gham-e-ulfat ke samne

ग़ज़ल

दुनिया का ग़म ही क्या ग़म-ए-उल्फ़त के सामने

इरम लखनवी

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दुनिया का ग़म ही क्या ग़म-ए-उल्फ़त के सामने
बातिल है बे-वजूद हक़ीक़त के सामने

हसरत से चुप हूँ मैं तिरी सूरत के सामने
जैसे गुनाहगार हो जन्नत के सामने

रुस्वाइयाँ हज़ार हों बर्बादियाँ हज़ार
पर्वा किसे है तेरी मोहब्बत के सामने

ऐ नाज़-ए-इश्क़ दार-ओ-रसन की बिसात क्या
मेरे वुफ़ूर-ए-शौक़-ए-शहादत के सामने

ऐ हुस्न-ए-बे-मिसाल मजाल आइने की क्या
जो आ सके कभी तिरी सूरत के सामने

आबादियों को छोड़ के ख़ुश हो गया था मैं
सहरा भी तंग है मिरी वहशत के सामने

लाखों हिजाब हुस्न को घेरे रहें मगर
ठहरे हैं कब निगाह-ए-मोहब्बत के सामने

कितने पहाड़ राह-ए-वफ़ा में कटे 'इरम'
कितने अभी हैं और मुसीबत के सामने