दुनिया है ये किसी का न इस में क़ुसूर था
दो दोस्तों का मिल के बिछड़ना ज़रूर था
उस के करम पे शक तुझे ज़ाहिद ज़रूर था
वर्ना तिरा क़ुसूर न करना क़ुसूर था
तुम दूर जब तलक थे तो नग़्मा भी था फ़ुग़ाँ
तुम पास आ गए तो अलम भी सुरूर था
उस इक नज़र के बज़्म में क़िस्से बने हज़ार
उतना समझ सका जिसे जितना शुऊर था
इक दर्स थी किसी की ये फ़नकारी-ए-निगाह
कोई न ज़द में था न कोई ज़द से दूर था
बस देखने ही में थीं निगाहें किसी की तल्ख़
शीरीं सा इक पयाम भी बैनस्सुतूर था
पीते तो हम ने शैख़ को देखा नहीं मगर
निकला जो मय-कदे से तो चेहरे पे नूर था
'मुल्ला' का मस्जिदों में तो हम ने सुना न नाम
ज़िक्र उस का मय-कदों में मगर दूर दूर था
ग़ज़ल
दुनिया है ये किसी का न इस में क़ुसूर था
आनंद नारायण मुल्ला