दुनिया भी अजब क़ाफ़िला-ए-तिश्ना-लबाँ है
हर शख़्स सराबों के तआ'क़ुब में रवाँ है
तन्हा तिरी महफ़िल में नहीं हूँ कि मिरे साथ
इक लज़्ज़त-ए-पाबंदी-ए-इज़हार-ओ-बयाँ है
हक़ बात पे है ज़हर भरे जाम की ताज़ीर
ऐ ग़ैरत-ए-ईमाँ लब-ए-सुक़रात कहाँ है
खेतों में समाती नहीं फूली हुई सरसों
बाग़ों में अभी तक वही हंगाम-ए-ख़िज़ाँ है
एहसास मिरा हिज्र-गज़ीदा है अज़ल से
क्या मुझ को अगर कोई क़रीब-ए-रग-ए-जाँ है
जो दल के समुंदर से उभरता है यक़ीं है
जो ज़ेहन के साहिल से गुज़रता है गुमाँ है
फूलों पे घटाओं के तो साए नहीं 'अनवर'
आवारा-ए-गुलज़ार नशेमन का धुआँ है
ग़ज़ल
दुनिया भी अजब क़ाफ़िला-ए-तिश्ना-लबाँ है
अनवर मसूद