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दुखों की वादी में हर शाम का गुज़र ऐसे | शाही शायरी
dukhon ki wadi mein har sham ka guzar aise

ग़ज़ल

दुखों की वादी में हर शाम का गुज़र ऐसे

सय्यदा ज़िया ख़ालिदा

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दुखों की वादी में हर शाम का गुज़र ऐसे
तुम्हारी याद का फैला हो धुँदलका जैसे

सितम-ज़रीफ़ बता किस तरह मनाऊँ तुझे
कि जुज़ तिरे मैं गुज़ारूँगी ज़िंदगी कैसे

रुतों में आया नज़र प्यार का रचाओ मुझे
तिरे वजूद को ख़ुद में समो लिया ऐसे

भरी बहार जो गुज़री तो फिर गुज़रती गई
मगर हमें तो ख़बर ही न हो सकी जैसे

मोहब्बतों के जज़ीरों के ख़्वाब बाक़ी हैं
वगर्ना दिन के उजाले भी राख हैं जैसे