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दुख ज़रा क्या मिला मोहब्बत में | शाही शायरी
dukh zara kya mila mohabbat mein

ग़ज़ल

दुख ज़रा क्या मिला मोहब्बत में

शादाब उल्फ़त

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दुख ज़रा क्या मिला मोहब्बत में
बस झलकने लगा इबारत में

कैसे कैसे सवाल करता है
एक पागल तिरी हिरासत में

क्यूँ नहीं हो रहा असर इस पर
क्या बुलूग़त नहीं बलाग़त में

लम्स तेरा दवा था जीने की
मैं तो मारा गया शराफ़त में

ऐसी आदत हुई असीरी की
चैन पड़ता नहीं फ़राग़त में

ये जो हिज़्यान बक रहे हो तुम
इश्क़ की हो मियाँ हरारत में

मैं धुएँ से लिपट गया बढ़ कर
जो उठा था तिरी शबाहत में