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दुख उठाओ कितने ही घर बहार करने में | शाही शायरी
dukh uThao kitne hi ghar bahaar karne mein

ग़ज़ल

दुख उठाओ कितने ही घर बहार करने में

हसन अकबर कमाल

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दुख उठाओ कितने ही घर बहार करने में
एक पल नहीं लगता फूल सब बिखरने में

ज़िंदगी हो कैसी भी उस से जी नहीं भरता
वर्ना सिर्फ़ होता है कितना वक़्त मरने में

खिड़कियाँ हुईं ख़ाली फूलों और चराग़ों से
कैसा दिल तड़पता है शहर से गुज़रने में

वक़्त ज़ख़्म भरता है और यूँ भी होता है
उम्र बीत जाती है एक ज़ख़्म भरने में

सब की बात दोहराना यूँ तो रस्म-ए-दुनिया है
लुत्फ़ और है लेकिन अपनी बात करने में

जा बसी है वो लड़की शहर में मगर अब भी
गूँजते हैं गीत उस के हर पहाड़ी झरने में