EN اردو
दुख तो दुख थे जो इधर बहर-ए-अमाँ आ निकले | शाही शायरी
dukh to dukh the jo idhar bahr-e-aman aa nikle

ग़ज़ल

दुख तो दुख थे जो इधर बहर-ए-अमाँ आ निकले

ख़ावर जीलानी

;

दुख तो दुख थे जो इधर बहर-ए-अमाँ आ निकले
आप इस दिल के ख़राबे में कहाँ आ निकले

इक ज़रा निकले तो आवाज़ दबा दें अपनी
क्या करें चुप का अगर उस की ज़बाँ आ निकले

जाने कब क़हक़हे रोना पड़ें अहबाब के साथ
जाने अतराफ़ में कब शहर-ए-फ़ुग़ाँ आ निकले

कुछ तो दिल-जूई चले धूप-नुमा ख़्वाहिश की
दश्त में तज़किरा-ए-अब्र-ए-रवाँ आ निकले

मेरे क़दमों से करे जूँही मसाफ़त आग़ाज़
ज़ाद-ए-रह में से उसी वक़्त ज़ियाँ आ निकले

देखते देखते सूरज का लहू शाम हुई
शब के आलाम थे जितने भी ब-जाँ आ निकले

अपने सहरा से बंधे प्यास के मारे हुए हम
मुंतज़िर हैं कि इधर कोई कुआँ आ निकले

क्या मैं फिर भी न करूँ आग सुलगने का गुमाँ
जब मिरी साँस की नाली में धुआँ आ निकले

आईने बेच के अब चलते बनो 'ख़ावर' तुम
इस से पहले कि कोई संग-ए-गिराँ आ निकले