EN اردو
दुख तमाशा तो नहीं है कि दिखाएँ बाबा | शाही शायरी
dukh tamasha to nahin hai ki dikhaen baba

ग़ज़ल

दुख तमाशा तो नहीं है कि दिखाएँ बाबा

ज़िया जालंधरी

;

दुख तमाशा तो नहीं है कि दिखाएँ बाबा
रो चुके और न अब हम को रुलाएँ बाबा

कैसी दहशत है कि ख़्वाहिश से भी डर लगता है
मुंजमिद हो गई होंटों पे दुआएँ बाबा

मौत है नर्म-दिली के लिए बदनाम उन में
हैं यहाँ और भी कुछ ऐसी बलाएँ बाबा

दाग़ दिखलाएँ हम उन को तो ये मिट जाएँगे क्या
ग़म-गुसारों से कहो यूँ न सताएँ बाबा

हम-सफ़ीरान-ए-चमन याद तो करते होंगे
पर क़फ़स तक नहीं आतीं वो सदाएँ बाबा

पत्ते शाख़ों से बरसते रहे अश्कों की तरह
रात भर चलती रहीं तेज़ हवाएँ बाबा

आग जंगल में भड़कती है 'ज़िया' शहर में बात
कैसे भड़के हुए शो'लों को बुझाएँ बाबा