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दुख नहीं है कि जल रहा हूँ मैं | शाही शायरी
dukh nahin hai ki jal raha hun main

ग़ज़ल

दुख नहीं है कि जल रहा हूँ मैं

फ़ैसल अजमी

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दुख नहीं है कि जल रहा हूँ मैं
रौशनी में बदल रहा हूँ मैं

टूटता है तो टूट जाने दो
आइने से निकल रहा हूँ मैं

रिज़्क़ मिलता है कितनी मुश्किल से
जैसे पत्थर में पल रहा हूँ मैं

हर ख़ज़ाने को मार दी ठोकर
और अब हाथ मल रहा हूँ मैं

ख़ौफ़ ग़र्क़ाब हो गया 'फ़ैसल'
अब समुंदर पे चल रहा हूँ मैं