दुख के जंगल में फिरते हैं कब से मारे मारे लोग
जो होता है सह लेते हैं कैसे हैं बेचारे लोग
जीवन जीवन हम ने जग में खेल यही होते देखा
धीरे धीरे जीती दुनिया धीरे धीरे हारे लोग
वक़्त सिंघासन पर बैठा है अपने राग सुनाता है
संगत देने को पाते हैं साँसों के उक्तारे लोग
नेकी इक दिन काम आती है हम को क्या समझाते हो
हम ने बे-बस मरते देखे कैसे प्यारे प्यारे लोग
इस नगरी में क्यूँ मिलती है रोटी सपनों के बदले
जिन की नगरी है वो जानें हम ठहरे बंजारे लोग
ग़ज़ल
दुख के जंगल में फिरते हैं कब से मारे मारे लोग
जावेद अख़्तर