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दुख के जंगल में फिरते हैं कब से मारे मारे लोग | शाही शायरी
dukh ke jangal mein phirte hain kab se mare mare log

ग़ज़ल

दुख के जंगल में फिरते हैं कब से मारे मारे लोग

जावेद अख़्तर

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दुख के जंगल में फिरते हैं कब से मारे मारे लोग
जो होता है सह लेते हैं कैसे हैं बेचारे लोग

जीवन जीवन हम ने जग में खेल यही होते देखा
धीरे धीरे जीती दुनिया धीरे धीरे हारे लोग

वक़्त सिंघासन पर बैठा है अपने राग सुनाता है
संगत देने को पाते हैं साँसों के उक्तारे लोग

नेकी इक दिन काम आती है हम को क्या समझाते हो
हम ने बे-बस मरते देखे कैसे प्यारे प्यारे लोग

इस नगरी में क्यूँ मिलती है रोटी सपनों के बदले
जिन की नगरी है वो जानें हम ठहरे बंजारे लोग