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डुबोएगी बुतो ये जिस्म दरिया-बार पानी में | शाही शायरी
Duboegi buto ye jism dariya-bar pani mein

ग़ज़ल

डुबोएगी बुतो ये जिस्म दरिया-बार पानी में

हातिम अली मेहर

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डुबोएगी बुतो ये जिस्म दरिया-बार पानी में
बनेगी मौज भी मेरे लिए ज़ुन्नार पानी में

ग़ुबार-ए-दीदा-तर से तकद्दुर दिल का ज़ाहिर है
तमाशा है उठी मिट्टी की इक दीवार पानी में

तन-ए-बे-जाँ में जाँ आई है अबरू के इशारे से
बुझी थी चश्मा-ए-हैवाँ की ये तलवार पानी में

यही रोना है फ़ुर्क़त में तो जाँ आँखों से निकलेगी
है मुर्ग़-ए-आबी उड़ने के लिए तय्यार पानी में

हमें क्या ग़ैर के खेतों पे जो अब्र-ए-करम बरसा
न आई अपनी जानिब तो कभी बौछार पानी में

तड़पता हूँ मैं रो रो के ख़याल-ए-मुसहफ़-रुख़ में
कि ग़ुस्ल-ए-इर्तिमासी करते हैं दीं-दार पानी में

मिरे रोने पे वो हँसते हैं तो अग़्यार जलते हैं
तिलिस्म-ए-ताज़ा है बद-गिल हुए फ़िन्नार पानी में

हुए ग़र्क़-ए-अरक़ जो शर्म-ए-इस्याँ से वो पाक उठ्ठे
हुआ करते हैं पैदा गौहर-ए-शहवार पानी में

न होगी आबरू-ए-आरज़ी तो जौहर-ए-ज़ाती
पिएँ सोने का पानी भी अगर ज़रदार पानी में

जो तू आईना रख कर सामने ज़ेवर पहनता है
तिरी बाली की मछली तैरती है यार पानी में

शराब-ए-नाब है इक क़िस्म का पानी है ऐ ज़ाहिद
अबस क्यूँ है तुझे ऐ ना समझ इंकार पानी में

लतीफ़ुत्तबअ' जुज़ राहत नहीं देते कभी ईज़ा
नहीं मुमकिन कि पैदा हो छुरी की धार पानी में

बना देते हैं दम में सैकड़ों गुम्बद हबाबों के
ख़ुदा की शान रहते हैं अजब मे'मार पानी में