दोस्तों के दरमियाँ भी हम को तन्हा देखते
तुम कभी आते सर-ए-महफ़िल तमाशा देखते
आइना-ख़ानों में क्या रक्खा है हैरत के सिवा
कूचा-ओ-बाज़ार में ख़ून-ए-मसीहा देखते
मौत को भी हम बना लेते मता-ए-ज़िंदगी
क़त्ल यूँ होते कि सब दाना ओ बीना देखते
क़ैस की मानिंद क्यूँ तस्वीर बन कर रह गए
पर्दा-ए-महमिल उठा कर रू-ए-लैला देखते
में तुम्हारे हुस्न का बे-साख़्ता इज़हार हूँ
अपने आईने में मेरा भी सरापा देखते
ढूँडने निकले हैं तुझ को मावरा-ए-आब-ओ-गिल
उम्र गुज़री यम-ब-यम सहरा-ब-सहरा देखते
क्या ये कम है फ़र्श से ता-अर्श हो आए 'जमील'
चार दिन की ज़िंदगी में और क्या क्या देखते
ग़ज़ल
दोस्तों के दरमियाँ भी हम को तन्हा देखते
जमील मलिक