दोस्त जितने भी थे मज़ार में हैं
ग़ालिबन मेरे इंतिज़ार में हैं
वो न होते मिरा वजूद न था
मैं न होता वो किस शुमार में हैं
शाख़-ए-इदराक में जो काँटे हैं
फूल बनने के इंतिज़ार में हैं
क्या सबब है कि एक मौसम में
कुछ ख़िज़ाँ में हैं कुछ बहार में हैं
एक शाइ'र बना ख़ुदा-ए-सुख़न
जो रसूल-ए-सुख़न थे ग़ार में हैं
ख़ार समझो न तुम उन्हें हरगिज़
साँप के दाँत गुल के हार में हैं
शिम्र-ओ-फ़िरऔन कब हुए मरहूम
उन के औसाफ़ रिश्ते-दार में हैं
सब के सब काविश-ए-फ़िरिश्ता-खिसाल
ऐब जितने हैं ख़ाकसार में हैं
ग़ज़ल
दोस्त जितने भी थे मज़ार में हैं
काविश बद्री