दोस्त जब दिल सा आश्ना ही नहीं
अब हमें ग़ैर का गिला ही नहीं
जिस का दिल दर्द-आश्ना ही नहीं
उस के जीने का कुछ मज़ा ही नहीं
एक दम हम से वो जुदा ही नहीं
गर जुदा हो तो वो ख़ुदा ही नहीं
आश्नाई पे उस की मत जाना
ले के दिल फिर वो आश्ना ही नहीं
ख़ाक छानी जहान की लेकिन
दिल-ए-गुम-गश्ता का पता ही नहीं
लाख माशूक़ हैं जहाँ में मगर
आह वो नाज़ वो अदा ही नहीं
सई-ए-बे-फ़ाएदा है चारागरो
मरज़-ए-इश्क़ की दवा ही नहीं
दर्द-ए-दिल उन से हम कहा ही किए
पर उन्हों ने कभी सुना ही नहीं
सर फिराता है क्यूँ अबस नासेह
मेरा कहने में दिल रहा ही नहीं
अब वो आए तो आएँ क्या हासिल
ताक़त-ए-अर्ज़-ए-मुद्दआ ही नहीं
मैं तो क्या गोश-ए-चर्ख़ ने भी 'ऐश'
ऐसा बेदाद-गर सुना ही नहीं
ग़ज़ल
दोस्त जब दिल सा आश्ना ही नहीं
ऐश देहलवी