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दोश-ए-हवा पे तिनकों का ये आशियाना क्या | शाही शायरी
dosh-e-hawa pe tinkon ka ye aashiyana kya

ग़ज़ल

दोश-ए-हवा पे तिनकों का ये आशियाना क्या

मोहसिन ज़ैदी

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दोश-ए-हवा पे तिनकों का ये आशियाना क्या
जिस को उजड़ ही जाना है वो घर बसाना क्या

हम को छुपा रहे हो ये आख़िर हमीं से क्यूँ
हम से मिला रहे हो हमें ग़ाएबाना क्या

हम कौन जुज़्व-ए-ख़ास किसी दास्ताँ के थे
कैसा हमारा ज़िक्र हमारा फ़साना क्या

आँखों में अश्क रोक लिए इस ख़याल से
मिट्टी में मोतियों का लुटाएँ ख़ज़ाना क्या

वो बज़्म-ए-दोस्ताँ न वो अब कू-ए-दिलबराँ
बाहर निकल के घर से कहीं आना जाना क्या

मक़्सद ये क्या नहीं है कि दुश्मन को हो शिकस्त
ये जंग हो रही है कोई दोस्ताना क्या

जब सब यहाँ ख़मोश हैं दीवार की तरह
फिर सुनना क्या किसी से किसी को सुनाना क्या

'मोहसिन' कहीं भी ले के हमें आब-ओ-दाना जाए
अपना यहाँ पे ठौर कोई क्या ठिकाना क्या