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दोनों हाथों में उठाए हुए भारी पत्थर | शाही शायरी
donon hathon mein uThae hue bhaari patthar

ग़ज़ल

दोनों हाथों में उठाए हुए भारी पत्थर

जाफ़र ताहिर

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दोनों हाथों में उठाए हुए भारी पत्थर
मारने आए हैं ईसा को हवारी पत्थर

मैं ने जो तेरे तसव्वुर में तराशे थे कभी
ले गए वो भी मिरे घर से पुजारी पत्थर

आदमी आज कहीं जाए तो क्यूँकर जाए
सर पे सहरा तो ज़मीं सारी की सारी पत्थर

सब से पहले मिरे भाई ने ही फेंका मुझ पर
पहला पत्थर ही मुझे हो गया कारी पत्थर

रहम ऐ गर्दिश-ए-दौराँ ये तमाशा क्या है
फूल से शानों पे करते हैं सवारी पत्थर

जब कोई ग़ुंचा खिला कोई कली चटकी है
ले के पहुँची है वहीं बाद-ए-बहारी पत्थर

दिल है इस आहू-ए-दरमाँदा-ओ-बेकस की तरह
मारते हैं जिसे मिल मिल के शिकारी पत्थर

सीना-ए-संग से दरिया नहीं बहते देखे
कौन कहता है कि हैं दर्द से आरी पत्थर

नाज़ हर बुत के उठा पाए न 'जाफ़र-ताहिर'
चूम कर छोड़ दिए हम ने ये भारी पत्थर