दो-चार सितारे ही मिरी आँख में धर जा
कुछ देर तो ऐ साअत-ए-शब मुझ में ठहर जा
अब और सँभाली नहीं जाती तिरी हुर्मत
यूँ कर ग़म-ए-जानाँ मेरी नज़रों से उतर जा
ता-उम्र तिरा नक़्श-ए-फ़रोज़ाँ रहे मुझ में
इक ज़ख़्म की सूरत मिरे माथे पे उभर जा
छोड़ आना वहीं पर ज़रा आवारा-मिज़ाजी
सहरा की तरफ़ ऐ दिल-ए-नादान अगर जा
या हो जा तू दरिया की निगाहों में तराज़ू
या तिश्ना-लबी साथ लिए जाँ से गुज़र जा
जब ज़ेहन को सुननी ही नहीं बात तुम्हारी
दिल तू भी रूसूमात-ए-तफ़ाहुम से मुकर जा
ग़ज़ल
दो-चार सितारे ही मिरी आँख में धर जा
अरशद जमाल 'सारिम'