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दो-चार सितारे ही मिरी आँख में धर जा | शाही शायरी
do-chaar sitare hi meri aankh mein dhar ja

ग़ज़ल

दो-चार सितारे ही मिरी आँख में धर जा

अरशद जमाल 'सारिम'

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दो-चार सितारे ही मिरी आँख में धर जा
कुछ देर तो ऐ साअत-ए-शब मुझ में ठहर जा

अब और सँभाली नहीं जाती तिरी हुर्मत
यूँ कर ग़म-ए-जानाँ मेरी नज़रों से उतर जा

ता-उम्र तिरा नक़्श-ए-फ़रोज़ाँ रहे मुझ में
इक ज़ख़्म की सूरत मिरे माथे पे उभर जा

छोड़ आना वहीं पर ज़रा आवारा-मिज़ाजी
सहरा की तरफ़ ऐ दिल-ए-नादान अगर जा

या हो जा तू दरिया की निगाहों में तराज़ू
या तिश्ना-लबी साथ लिए जाँ से गुज़र जा

जब ज़ेहन को सुननी ही नहीं बात तुम्हारी
दिल तू भी रूसूमात-ए-तफ़ाहुम से मुकर जा