दिए पलकों के सारे बुझ रहे हैं
सर-ए-शब ही सितारे बुझ रहे हैं
इन आँखों ने जिन्हें रौशन किया था
वो सब मंज़र हमारे बुझ रहे हैं
बहुत कम हो चली है आतिश-ए-ख़ाक
ज़मीं तेरे शरारे बुझ रहे हैं
सियाहत हाथ मल कर रह गई है
सर-ए-साहिल शिकारे बुझ रहे हैं
पए शब सैर आया भी कहाँ मैं
जहाँ सारे नज़ारे बुझ रहे हैं
न हलचल है न कोई मौज-ए-बोसा
समुंदर के किनारे बुझ रहे हैं
मैं यख़-बस्ता हुआ जाता हूँ 'अफ़सर'
मिरे जज़्बात सारे बुझ रहे हैं

ग़ज़ल
दिए पलकों के सारे बुझ रहे हैं
ख़ुर्शीद अफ़सर बसवानी