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दिए पलकों के सारे बुझ रहे हैं | शाही शायरी
diye palkon ke sare bujh rahe hain

ग़ज़ल

दिए पलकों के सारे बुझ रहे हैं

ख़ुर्शीद अफ़सर बसवानी

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दिए पलकों के सारे बुझ रहे हैं
सर-ए-शब ही सितारे बुझ रहे हैं

इन आँखों ने जिन्हें रौशन किया था
वो सब मंज़र हमारे बुझ रहे हैं

बहुत कम हो चली है आतिश-ए-ख़ाक
ज़मीं तेरे शरारे बुझ रहे हैं

सियाहत हाथ मल कर रह गई है
सर-ए-साहिल शिकारे बुझ रहे हैं

पए शब सैर आया भी कहाँ मैं
जहाँ सारे नज़ारे बुझ रहे हैं

न हलचल है न कोई मौज-ए-बोसा
समुंदर के किनारे बुझ रहे हैं

मैं यख़-बस्ता हुआ जाता हूँ 'अफ़सर'
मिरे जज़्बात सारे बुझ रहे हैं