दिया जलाएगी तू और मैं बुझाऊँगा
मुझे न चाह मैं नफ़रत से पेश आऊँगा
मैं सख़्त-दिल ही रहूँगा यही रिआ'यत है
मैं बार बार तिरा दिल नहीं दुखाऊँगा
मुझे पता नहीं क्या हो गया है कुछ दिन से
पता चला भी तो तुझ को नहीं बताऊँगा
मैं चाहता हूँ मिरी बात का असर कम हो
ज़ियादा देर मगर झूट कह न पाऊँगा
हँसी की बात है अपनी ही और वो ये कि
मिरा ख़याल था मैं तुझ को भूल जाऊँगा
ग़ज़ल
दिया जलाएगी तू और मैं बुझाऊँगा
आरिफ़ इशतियाक़