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दिन वस्ल के रंज-ए-शब-ए-ग़म भूल गए हैं | शाही शायरी
din wasl ke ranj-e-shab-e-gham bhul gae hain

ग़ज़ल

दिन वस्ल के रंज-ए-शब-ए-ग़म भूल गए हैं

शैख़ मीर बख़्श मसरूर

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दिन वस्ल के रंज-ए-शब-ए-ग़म भूल गए हैं
ये ख़ुश हैं कि अपने तईं हम भूल गए हैं

उन वा'दा-फ़रोशों से क्या कीजिए शिकवा
खा खा के मिरे सर की क़सम भूल गए हैं

जिस दिन से गए अपनी ख़बर तक नहीं भेजी
शायद हमें यारान-ए-अ'दम भूल गए हैं

काटी हैं महीनों ही तिरी याद में रातें
ग़फ़लत में तुझे गर कोई दम भूल गए हैं

या राहत-ओ-रंज अब है मुसावात हमीं को
या आप ही कुछ तर्ज़-ए-सितम भूल गए हैं

कुछ होश ठिकाने हों तो लें नाम किसी का
हम दे के कहीं दिल की रक़म भूल गए हैं

गो बरसर-ए-परख़ाश है 'मसरूर' से तू अब
क्या उस को तिरे लुत्फ़-ओ-करम भूल गए हैं