दिन ले के जाऊँ साथ उसे शाम कर के आऊँ
बे-कार के सफ़र में कोई काम कर के आऊँ
बे-मोल कर गईं मुझे घर की ज़रूरतें
अब अपने-आप को कहाँ नीलाम कर के आऊँ
मैं अपने शोर-ओ-शर से किसी रोज़ भाग कर
इक और जिस्म में कहीं आराम कर के आऊँ
कुछ रोज़ मेरे नाम का हिस्सा रहा है वो
अच्छा नहीं कि अब उसे बद-नाम कर के आऊँ
'अंजुम' मैं बद-दुआ भी नहीं दे सका उसे
जी चाहता तो था वहाँ कोहराम कर के आऊँ
ग़ज़ल
दिन ले के जाऊँ साथ उसे शाम कर के आऊँ
अंजुम सलीमी