दिन को दिन रात को मैं रात न लिखने पाऊँ
उन की कोशिश है कि हालत न लिखने पाऊँ
हिन्दू को हिन्दू मुसलमान को लिक्खूँ मुस्लिम
कभी इन दोनों को इक साथ न लिखने पाऊँ
बस क़लम-बंद किए जाऊँ मैं उन की हर बात
दिल से जो उठती है वो बात न लिखने पाऊँ
सोच तो लेता हूँ क्या लिखना है पर लिखते समय
काँपते क्यूँ है मिरे हाथ न लिखने पाऊँ
जीत पर उन की लगा दूँ मैं क़सीदों की झड़ी
मात को उन की मगर मात न लिखने पाऊँ
शुक्र ही शुक्र लिखे जाऊँ मैं उन के हक़ में
कभी उन से मैं शिकायात न लिखने पाऊँ
अपने होंटों पे न ला पाऊँ मैं अपने नाले
अपनी ही आँखों की बरसात न लिखने पाऊँ
जिन सवालों से तबस्सुम में ख़लल पड़ता हो
कभी वो तल्ख़ सवालात न लिखने पाऊँ
ख़ुद को माज़ी में रखूँ हाल में रहते हुए भी
नए वक़्तों के ख़यालात न लिखने पाऊँ
उन की कोशिश है कलेजा हो मिरा पत्थर का
उन की कोशिश है मैं जज़्बात न लिखने पाऊँ
ग़ज़ल
दिन को दिन रात को मैं रात न लिखने पाऊँ
राजेश रेड्डी