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दिन की बेदर्द थकन चेहरे पे ले कर मत जा | शाही शायरी
din ki bedard thakan chehre pe le kar mat ja

ग़ज़ल

दिन की बेदर्द थकन चेहरे पे ले कर मत जा

क़ैसर-उल जाफ़री

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दिन की बेदर्द थकन चेहरे पे ले कर मत जा
बाम-ओ-दर जाग रहे होंगे अभी घर मत जा

मेरे पुरखों की विरासत का भरम रहने दे
तू हवेली को खुला देख के अंदर मत जा

बूँद भर दर्द सँभलता नहीं कम-ज़र्फ़ों से
रख के तू अपनी हथेली पे समुंदर मत जा

फूटने दे मिरी पलकों से ज़रा और लहू
ऐ मिरी नींद अभी छोड़ के बिस्तर मत जा

कुछ तो रहने दे अभी तर्क-ए-वफ़ा की ख़ातिर
तुझ को जाना है तो जा हाथ झटक कर मत जा

और कुछ देर ये मश्क़-ए-निगह-ए-नाज़ सही
सामने बैठ अभी फेंक के ख़ंजर मत जा

धूप क्या है तुझे अंदाज़ा नहीं है 'क़ैसर'
आबले पाँव में पड़ जाएँगे बाहर मत जा