दिन की बेदर्द थकन चेहरे पे ले कर मत जा
बाम-ओ-दर जाग रहे होंगे अभी घर मत जा
मेरे पुरखों की विरासत का भरम रहने दे
तू हवेली को खुला देख के अंदर मत जा
बूँद भर दर्द सँभलता नहीं कम-ज़र्फ़ों से
रख के तू अपनी हथेली पे समुंदर मत जा
फूटने दे मिरी पलकों से ज़रा और लहू
ऐ मिरी नींद अभी छोड़ के बिस्तर मत जा
कुछ तो रहने दे अभी तर्क-ए-वफ़ा की ख़ातिर
तुझ को जाना है तो जा हाथ झटक कर मत जा
और कुछ देर ये मश्क़-ए-निगह-ए-नाज़ सही
सामने बैठ अभी फेंक के ख़ंजर मत जा
धूप क्या है तुझे अंदाज़ा नहीं है 'क़ैसर'
आबले पाँव में पड़ जाएँगे बाहर मत जा
ग़ज़ल
दिन की बेदर्द थकन चेहरे पे ले कर मत जा
क़ैसर-उल जाफ़री