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दिन के पहले पहर मैं ही अपना बिस्तर छोड़ कर | शाही शायरी
din ke pahle pahr main hi apna bistar chhoD kar

ग़ज़ल

दिन के पहले पहर मैं ही अपना बिस्तर छोड़ कर

स्वप्निल तिवारी

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दिन के पहले पहर में ही अपना बिस्तर छोड़ कर
रौशनी निकली है नींद अपनी फ़लक पर छोड़ कर

वो मुसव्विर-दर-मुसव्विर खो रही है अपने रंग
इक धनक भटकी है कितना अपना अम्बर छोड़ कर

वक़्त है अब भी मना लूँ चल के उस को एक दिन
घर निकल जाएगा वर्ना एक दिन घर छोड़ कर

आँसुओ थोड़ी मदद मुझ को तुम्हारी चाहिए
ग़म चले जाएँगे वर्ना दिल को बंजर छोड़ कर

ख़्वाब आँखें छोड़ कर कहिए कहाँ जाएँगे अब
सिलवटें क्या मर नहीं जाएँगी चादर छोड़ कर

लहर बन कर उस ने थोड़ी दूर तक पीछा किया
जा रहा था अपना दरिया इक शनावर छोड़ कर

जल उठेंगे पाँव 'आतिश' उन के छूते ही ज़मीं
ख़्वाब गर उतरे मिरी आँखों का बिस्तर छोड़ कर