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दिन का फूल अभी जागा था | शाही शायरी
din ka phul abhi jaga tha

ग़ज़ल

दिन का फूल अभी जागा था

नासिर काज़मी

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दिन का फूल अभी जागा था
धूप का हाथ बढ़ा आता था

सुर्ख़ चनारों के जंगल में
पत्थर का इक शहर बसा था

पीले पथरीले हाथों में
नीली झील का आईना था

ठंडी धूप की छतरी ताने
पेड़ के पीछे पेड़ खड़ा था

धूप के लाल हरे होंटों ने
तेरे बालों को चूमा था

तेरे अक्स की हैरानी से
बहता चश्मा ठहर गया था

तेरी ख़मोशी की शह पा कर
मैं कितनी बातें करता था

तेरी हिलाल सी उँगली पकड़े
मैं कोसों पैदल चलता था

आँखों में तिरी शक्ल छुपाए
मैं सब से छुपता फिरता था

भूली नहीं उस रात की दहशत
चर्ख़ पे जब तारा टूटा था

रात गए सोने से पहले
तू ने मुझ से कुछ पूछा था

यूँ गुज़री वो रात भी जैसे
सपने में सपना देखा था