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दिन का मलाल शाम की वहशत कहाँ से लाएँ | शाही शायरी
din ka malal sham ki wahshat kahan se laen

ग़ज़ल

दिन का मलाल शाम की वहशत कहाँ से लाएँ

रज़ी अख़्तर शौक़

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दिन का मलाल शाम की वहशत कहाँ से लाएँ
ज़र-ज़ादगान-ए-शहर मोहब्बत कहाँ से लाएँ

सर्फ़-ए-शुमार-ए-दौलत-ए-दुनिया हुए जो लोग
वो ना-मुराद दिल की इमारत कहाँ से लाएँ

सारा लहू तो सर्फ़-ए-शुमार-ओ-अदू हुआ
शाम-ए-फ़िराक़-ए-यार की उजरत कहाँ से लाएँ

वो जिन के दिल के साथ न धड़का हो कोई दिल
ज़िंदा भी हैं तो उस की शहादत कहाँ से लाएँ

दो हर्फ़ अपने दिल की गवाही के वास्ते
कहना भी चाहते हों तो जुरअत कहाँ से लाएँ

बे-चेहरा लोग चेहरा दिखाने के शौक़ में!
आईने माँग लाए हैं हैरत कहाँ से लाएँ

अपने ही नक़्श-ए-पा के अक़ीदत-गुज़ार लोग
कुछ और देखने को बसारत कहाँ से लाएँ

कुछ ज़रगिरान-ए-शहर ने अहल-ए-कमाल का
चेहरा बना लिया क़द-ओ-क़ामत कहाँ से लाएँ

उजड़े नहीं कभी वो जो टूटे नहीं कभी
वो लोग हर्फ़ लिखने की क़ुव्वत कहाँ से लाएँ

जब दर ही बंद हों कोई ख़ुश्बू कहाँ से आए
गर लफ़्ज़ लिख भी दें तो हलावत कहाँ से लाएँ