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दिन हो कि रात, कुंज-ए-क़फ़स हो कि सेहन-ए-बाग़ | शाही शायरी
din ho ki raat, kunj-e-qafas ho ki sehn-e-bagh

ग़ज़ल

दिन हो कि रात, कुंज-ए-क़फ़स हो कि सेहन-ए-बाग़

अंजुम रूमानी

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दिन हो कि रात, कुंज-ए-क़फ़स हो कि सेहन-ए-बाग़
आलाम-ए-रोज़गार से हासिल नहीं फ़राग़

रग़बत किसे कि लीजिए ऐश-ओ-तरब का नाम
फ़ुर्सत कहाँ कि कीजिए सहबा से पुर अयाग़

वीराना-ए-हयात में आसूदा-ख़ातिरी
किस को मिला इस आहु-ए-रम-ख़ुर्दा का सुराग़

आसार-ए-कू-ए-दोस्त हैं और पा-शिकस्तगी
ख़ुशबू-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार है और हम से बे-दिमाग़

किस की जबीं पे हैं ये सितारे अरक़ अरक़
किस के लहू से चाँद का दामन है दाग़ दाग़

करते हैं कस्ब-ए-नूर इसी तीरगी से हम
'अंजुम' हैं दिल के दाग़ गुहर-हा-ए-शब-चराग़