EN اردو
दिन गुज़र जाता है पर रात से जी डरता है | शाही शायरी
din guzar jata hai par raat se ji Darta hai

ग़ज़ल

दिन गुज़र जाता है पर रात से जी डरता है

मरग़ूब अली

;

दिन गुज़र जाता है पर रात से जी डरता है
छत शिकस्ता हो तो बरसात से जी डरता है

फूल शाख़ों पे भी मुरझा के बिखर जाते हैं
तू हो गर साथ तिरे साथ से जी डरता है

आबगीने में तअ'ल्लुक़ के न बाल आए कहीं
बात करते हुए हर बात से जी डरता है

चाँदनी रातें न आएँ ये दुआ करता हूँ
अब तो गुज़रे हुए लम्हात से जी डरता है

फिर तमाज़त तिरे पहलू की जगा देती है
नींद में भी तिरी इस घात से जी डरता है