दिन ढला जाता है शाम आती है घबराता हूँ मैं
डूबता जाता है सूरज डूबता जाता हूँ मैं
इक ठिकाना था जहाँ बहला लिया करता था दिल
आज उस महफ़िल को भी ज़ेर-ओ-ज़बर पाता हूँ मैं
आ गई है याद आज अपने दिल-ए-मरहूम की
सारी दुनिया सोग में डूबी हुई पाता हूँ मैं
मेरी गुज़री ज़िंदगी आवाज़ देती है मुझे
ऐ मुग़न्नी बंद कर नग़्मा कि घबराता हूँ मैं
रफ़्ता रफ़्ता इश्क़ इस मंज़िल में लाया है मुझे
दर्द उठता है किसी को और तड़प जाता हूँ मैं
तुम वही महफ़िल वही महफ़िल की रानाई वही
इन दिनों कुछ अपने ही को दूसरा पाता हूँ मैं
ये सफ़ेदी है सहर की या तमन्ना का कफ़न
हाए क्या पाना था क्या वक़्त-ए-सहर पाता हूँ मैं
रौशनी देता हूँ सब को इक बुझे दिल से 'नज़ीर'
अपनी सर्द आहों से हर महफ़िल को गर्माता हूँ मैं
ग़ज़ल
दिन ढला जाता है शाम आती है घबराता हूँ मैं
नज़ीर बनारसी