दिन ढल चुका था और परिंदा सफ़र में था
सारा लहू बदन का रवाँ मुश्त-ए-पर में था
जाते कहाँ कि रात की बाँहें थीं मुश्तइ'ल
छुपते कहाँ कि सारा जहाँ अपने घर में था
हद-ए-उफ़ुक़ पे शाम थी ख़ेमे में मुंतज़िर
आँसू का इक पहाड़ सा हाइल नज़र में था
लो वो भी ख़ुश्क रेत के टीले में ढल गया
कल तक जो एक कोह-ए-गिराँ रहगुज़र में था
उतरा था वहशी चिड़ियों का लश्कर ज़मीन पर
फिर इक भी सब्ज़ पात न सारे नगर में था
पागल सी इक सदा किसी उजड़े मकाँ में थी
खिड़की में इक चराग़ भरी-दोपहर में था
उस का बदन था ख़ौफ़ की हिद्दत से शो'ला-वश
सूरज का इक गुलाब सा तश्त-ए-सहर में था
ग़ज़ल
दिन ढल चुका था और परिंदा सफ़र में था
वज़ीर आग़ा