दिन-भर की दौड़ रात के औहाम वसवसे
ठंडी सलोनी शाम की ख़ुश-बू में ढल गए
किरदार क़त्ल करने लगे लोग यूँ कि हम
अपने ही घर में बैठ के आवारा बन गए
रक़्स-ए-नसीम-ए-मौत था हर-चंद मुख़्तसर
दरिया के मुँह पे फिर भी उछल आए आबले
नाज़ुक है मिस्ल-ए-माह मगर सुरमई बदन
ऐ जाँ तुझे ये किस ने दिए ग़ुस्ल आग के
ग़ज़ल
दिन-भर की दौड़ रात के औहाम वसवसे
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी