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दिन-भर की दौड़ रात के औहाम वसवसे | शाही शायरी
din-bhar ki dauD raat ke auham waswase

ग़ज़ल

दिन-भर की दौड़ रात के औहाम वसवसे

शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

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दिन-भर की दौड़ रात के औहाम वसवसे
ठंडी सलोनी शाम की ख़ुश-बू में ढल गए

किरदार क़त्ल करने लगे लोग यूँ कि हम
अपने ही घर में बैठ के आवारा बन गए

रक़्स-ए-नसीम-ए-मौत था हर-चंद मुख़्तसर
दरिया के मुँह पे फिर भी उछल आए आबले

नाज़ुक है मिस्ल-ए-माह मगर सुरमई बदन
ऐ जाँ तुझे ये किस ने दिए ग़ुस्ल आग के