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दिन भर के दहकते हुए सूरज से लड़ा हूँ | शाही शायरी
din bhar ke dahakte hue suraj se laDa hun

ग़ज़ल

दिन भर के दहकते हुए सूरज से लड़ा हूँ

मोहम्मद अल्वी

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दिन भर के दहकते हुए सूरज से लड़ा हूँ
अब रात के दरिया में पड़ा डूब रहा हूँ

अब तक मैं वहीं पर हूँ जहाँ से मैं चला हूँ
आवाज़ की रफ़्तार से क्यूँ भाग रहा हूँ

रखते हो अगर आँख तो बाहर से न देखो
देखो मुझे अंदर से बहुत टूट चुका हूँ

ये सब तिरी महकी हुई ज़ुल्फ़ों का करम है
इक साँस में इक उम्र के दुख भूल गया हूँ

तू जिस्म के अंदर है कि बाहर है किधर है
'अल्वी' मिरी जाँ कब से तुझे ढूँड रहा हूँ