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दिन बहुत सफ़्फ़ाक निकला रात सब दुख सह गई | शाही शायरी
din bahut saffak nikla raat sab dukh sah gai

ग़ज़ल

दिन बहुत सफ़्फ़ाक निकला रात सब दुख सह गई

खुर्शीद अकबर

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दिन बहुत सफ़्फ़ाक निकला रात सब दुख सह गई
दाँत में उँगली दबाए शाम तन्हा रह गई

संग-रेज़ों की तरह बिखरी पड़ी हैं ख़्वाहिशें
देखते ही देखते किस की हवेली ढह गई

संदली ख़्वाबों में लिपटे थे हज़ारों अज़दहे
और फिर तासीर जिस्म-ओ-जाँ में तह-दर-तह गई

बे-मुरव्वत साअ'तों को रोइए क्यूँ उम्र भर
एक शय आँखों में जो रहती थी कब की बह गई

घर की दीवारों पे सब्ज़ा बिन के उगना था मुझे
इक हवा सहरा से आई कान में कुछ कह गई