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दिन-ब-दिन घटती हुई उम्र पे नाज़िल हो जाए | शाही शायरी
din-ba-din ghaTti hui umr pe nazil ho jae

ग़ज़ल

दिन-ब-दिन घटती हुई उम्र पे नाज़िल हो जाए

नोमान शौक़

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दिन-ब-दिन घटती हुई उम्र पे नाज़िल हो जाए
इक बदन और मिरी रूह को हासिल हो जाए

मोर्चे खोलता रहता हूँ समुंदर के ख़िलाफ़
जिस को मिटना है वो आए मिरा साहिल हो जाए

खेल ही खेल में छू लूँ मैं किनारा अपना
ऐसे सोऊँ कि जगाना मुझे मुश्किल हो जाए

लग के बीमार के सीने से न रोना ऐसे
ज़िंदगानी की तरह मौत भी मुश्किल हो जाए

रख रहे हैं तिरे पत्थर मिरे ज़ख़्मों का हिसाब
अब ये मजमा भी मिरे कश्फ़ का क़ाएल हो जाए

इस क़दर देर न करना कि ये आसेब-नगर
रात का रूप ले और जिस्म में दाख़िल हो जाए

जंग अपनों से है तो दिल को किनारे कर लूँ
रास्ते में यही तलवार न हाएल हो जाए