दिलों से उठने लगेगा धुआँ तो क्या होगा
बदल गया कभी रंग-ए-जहाँ तो क्या होगा
मचल गया जो दिल-ए-ना-तवाँ तो क्या होगा
उठा न इश्क़ का बार-ए-गिराँ तो क्या होगा
हमें फ़रेब-ए-मोहब्बत क़ुबूल है लेकिन
जो खुल गई कभी दिल की ज़बाँ तो क्या होगा
हम अहल-ए-दिल हैं किसी इम्तिहाँ से क्या डरते
लिया फ़लक ने तिरा इम्तिहाँ तो क्या होगा
हज़ार दर्द समेटे हुए हूँ इक दिल में
बिखर गई जो मिरी दास्ताँ तो क्या होगा
'हयात' किस को दिखाउँगी आबगीना-ए-दिल
मिला न कोई यहाँ क़द्र-दाँ तो क्या होगा

ग़ज़ल
दिलों से उठने लगेगा धुआँ तो क्या होगा
मसूदा हयात