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दिलों से दर्द दुआ से असर निकलता है | शाही शायरी
dilon se dard dua se asar nikalta hai

ग़ज़ल

दिलों से दर्द दुआ से असर निकलता है

मोहम्मद मुख़तार अली

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दिलों से दर्द दुआ से असर निकलता है
ये किस बहिश्त की जानिब बशर निकलता है

पड़ा है शहर में चाँदी के बर्तनों का रिवाज
सो इस अज़ाब से अब कूज़ा-गर निकलता है

मियाँ ये चादर-ए-शोहरत तुम अपने पास रखो
कि इस से पाँव जो ढाँपें तो सर निकलता है

ख़याल-ए-गर्दिश-ए-दौराँ हो क्या उसे कि जो शख़्स
गिरह में माँ की दुआ बाँध कर निकलता है

मैं संग-ए-मील हूँ पत्थर नहीं हूँ रस्ते का
सो क्यूँ ज़माना मुझे रौंद कर निकलता है

मिरे सुख़न पे तू दाद-ए-सुख़न नहीं देता
तिरी तरफ़ मिरा क़र्ज़-ए-हुनर निकलता है

सुखनवरान-ए-क़द-आवर में तेरा क़द 'मुख़्तार'
अजब नहीं है जो बालिश्त-भर निकलता है