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दिलों में बार-ए-यक़ीन-ओ-गुमाँ उठाए हुए | शाही शायरी
dilon mein bar-e-yaqin-o-guman uThae hue

ग़ज़ल

दिलों में बार-ए-यक़ीन-ओ-गुमाँ उठाए हुए

ख़ुर्शीद रिज़वी

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दिलों में बार-ए-यक़ीन-ओ-गुमाँ उठाए हुए
रवाँ है रख़्त-ए-सफ़र कारवाँ उठाए हुए

कोई तो है पस-ए-दीवार-ए-गुल्सिताँ जिस के
नज़ारा जो हैं शजर एड़ियाँ उठाए हुए

मिरी मिसाल पुराने शजर की है दिल पर
हज़ार बाग़ बहार-ओ-ख़िज़ाँ उठाए हुए

फुसून-ए-सोहबत शब में तो नींद टलती रही
फिरूंगा दिन को ये बार-ए-गराँ उठाए हुए

तिरे ख़याल को फिरता हूँ यूँ लिए जैसे
ज़मीन सर पे फिरे आसमाँ उठाए हुए

न जाने जिस्म के साहिल पे अब सफीना-ए-जाँ
किस इंतिज़ार में है बादबाँ उठाए हुए