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दिलों के माबैन शक की दीवार हो रही है | शाही शायरी
dilon ke mabain shak ki diwar ho rahi hai

ग़ज़ल

दिलों के माबैन शक की दीवार हो रही है

शकील जमाली

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दिलों के माबैन शक की दीवार हो रही है
तो क्या जुदाई की राह हमवार हो रही है

ज़रा सा मुझ को भी तजरबा कम है रास्ते का
ज़रा सी तेरी भी तेज़ रफ़्तार हो रही है

उधर से भी जो चाहिए था नहीं मिला है
इधर हमारी भी उम्र बे-कार हो रही है

शदीद गर्मी में कैसे निकले वो फूल-चेहरा
सो अपने रस्ते में धूप दीवार हो रही है

बस इक तअ'ल्लुक़ ने मेरी नींदें उड़ा रखी हैं
बस इक शनासाई जाँ का आज़ार हो रही है

यहाँ से क़िस्सा शुरूअ' होता है क़त्ल-ओ-ख़ूँ का
यहाँ से ये दास्ताँ मज़ेदार हो रही है

ये लोग दुनिया को किस तरफ़ ले के जा रहे हैं
ये लोग जिन की ज़बान तलवार हो रही है