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दिलबरों के राज़ का महरम हुआ | शाही शायरी
dilbaron ke raaz ka mahram hua

ग़ज़ल

दिलबरों के राज़ का महरम हुआ

ख़लीलुर्रहमान राज़

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दिलबरों के राज़ का महरम हुआ
दर्द से दिल मिस्ल-ए-जाम-ए-जम हुआ

रात-दिन आँसू बहे मातम हुआ
दर्द फ़ुर्क़त का न लेकिन कम हुआ

रह गया हूँ बन के इक तस्वीर-ए-ग़म
ग़म के हाथों हाए क्या आलम हुआ

ज़ख़्म खाए एक मुद्दत हो गई
सोज़-ए-दिल लेकिन नहीं मद्धम हुआ

दर्द-ए-उल्फ़त की हसीं तश्कील में
इम्तिज़ाज शो'ला-ओ-शबनम हुआ

एक उठना था निगाह-ए-नाज़ का
दोनों आलम का अजब आलम हुआ

पुर-ख़तर पुर-पेच है राह-ए-हयात
चल सका जितना भी जिस में दम हुआ

फिर सबा में है नई दीवानगी
क्या मिज़ाज-ए-ज़ुल्फ़ फिर बरहम हुआ

वक़्त ने पैहम लगाए दिल पे ज़ख़्म
वक़्त ख़ुद ही उन का फिर मरहम हुआ

आई इक अल्लाहु-अकबर की सदा
सर मिरा पेश-ए-सनम जब ख़म हुआ

ना-रसा जितने रहे नाले मिरे
इस क़दर ईमाँ मिरा मोहकम हुआ

राज़ से अहल-ए-हवस हैं मुन्हरिफ़
ये भी गोया सज्दा-ए-आदम हुआ