दिलबर-ए-बे-बाक सूँ ख़ूब नहीं बोलना
शोख़ सितम-नाक सूँ ख़ूब नहीं बोलना
दस्त में ख़ंजर पकड़ निकला है वो ग़ुस्सा-वर
हाथ के चालाक सूँ ख़ूब नहीं बोलना
अबतर-ए-ख़ूँ-रेज़ है क़त्ल उपर तेज़ है
ज़ालिम-ओ-सफ़्फ़ाक सूँ ख़ूब नहीं बोलना
उस की जफ़ा सीं तमाम जग में पड़ी धूम-धाम
हम जम-ओ-ज़ह्हाक सूँ ख़ूब नहीं बोलना
मुझ से रक़ीब-ओ-लईं जीव में रखता है कीं
उस सग-ए-नापाक सूँ ख़ूब नहीं बोलना
बुल-हवस-ए-ज़िश्त-रू करता है नित गुफ़्तुगू
मर्द बे-इदराक सूँ ख़ूब नहीं बोलना
मिस्रा-ए-मतला' सदा विर्द करे 'मुबतला'
दिलबर-ए-बे-बाक सूँ ख़ूब नहीं बोलना

ग़ज़ल
दिलबर-ए-बे-बाक सूँ ख़ूब नहीं बोलना
उबैदुल्लाह ख़ाँ मुब्तला