EN اردو
दिलबर-ए-बे-बाक सूँ ख़ूब नहीं बोलना | शाही शायरी
dilbar-e-be-bak sun KHub nahin bolna

ग़ज़ल

दिलबर-ए-बे-बाक सूँ ख़ूब नहीं बोलना

उबैदुल्लाह ख़ाँ मुब्तला

;

दिलबर-ए-बे-बाक सूँ ख़ूब नहीं बोलना
शोख़ सितम-नाक सूँ ख़ूब नहीं बोलना

दस्त में ख़ंजर पकड़ निकला है वो ग़ुस्सा-वर
हाथ के चालाक सूँ ख़ूब नहीं बोलना

अबतर-ए-ख़ूँ-रेज़ है क़त्ल उपर तेज़ है
ज़ालिम-ओ-सफ़्फ़ाक सूँ ख़ूब नहीं बोलना

उस की जफ़ा सीं तमाम जग में पड़ी धूम-धाम
हम जम-ओ-ज़ह्हाक सूँ ख़ूब नहीं बोलना

मुझ से रक़ीब-ओ-लईं जीव में रखता है कीं
उस सग-ए-नापाक सूँ ख़ूब नहीं बोलना

बुल-हवस-ए-ज़िश्त-रू करता है नित गुफ़्तुगू
मर्द बे-इदराक सूँ ख़ूब नहीं बोलना

मिस्रा-ए-मतला' सदा विर्द करे 'मुबतला'
दिलबर-ए-बे-बाक सूँ ख़ूब नहीं बोलना