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दिला नहीं ये मय-ए-सुर्ख़-फ़ाम शीशे में | शाही शायरी
dila nahin ye mai-e-surKH-fam shishe mein

ग़ज़ल

दिला नहीं ये मय-ए-सुर्ख़-फ़ाम शीशे में

मज़ाक़ बदायुनी

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दिला नहीं ये मय-ए-सुर्ख़-फ़ाम शीशे में
भरा है शीशा-ए-जाँ का क़वाम शीशे में

जो दूँ शराब को आब-ए-हयात से तश्बीह
तो उतरें ख़िज़्र अलैहिस-सलाम शीशे में

ख़याल दिल में है साक़ी की चश्म-ए-मय-गूँ का
शराब जाम में है और जाम शीशे में

शिगाफ़-ए-दिल में भरा मरहम-ए-मय-ए-अंगूर
किया है क्या ही करामत का काम शीशे में

मैं ख़र्क़-ए-आदत-ए-पीर-ए-मुग़ाँ का क़ाएल हूँ
कि ब'अद-ए-ख़र्क़ किया इल्तियाम शीशे में

खुला जो बज़्म में मीना तो चाँदनी छिटकी
ये दुख़्तर-ए-रज़ है कि माह-ए-तमाम शीशे में

'मज़ाक़' मिलती है इन रोज़ों वक़्त-ए-शाम शराब
रखे है दुख़्तर-ए-रज़ को सियाम शीशे में