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दिल तो हाज़िर है अगर कीजिए फिर नाज़ से रम्ज़ | शाही शायरी
dil to hazir hai agar kijiye phir naz se ramz

ग़ज़ल

दिल तो हाज़िर है अगर कीजिए फिर नाज़ से रम्ज़

अब्दुल रहमान एहसान देहलवी

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दिल तो हाज़िर है अगर कीजिए फिर नाज़ से रम्ज़
हैं तिरे नाज़ के सदक़े इसी अंदाज़ से रम्ज़

रम्ज़-ओ-ईमा-ओ-किनाए तुझे सब याद हैं यार
हम तो भूले हैं ग़म-ए-ग़म्ज़ा-ए-ग़म्माज़ से रम्ज़

अपनी ना-फ़हमी से मैं और न कुछ कर बैठूँ
इस तरह से तुम्हें जाएज़ नहीं एजाज़ से रम्ज़

दिल को तू सहज में लेवेगा ये मैं जान चुका
यही निकली हैं तिरी सहज की आवाज़ से रम्ज़

हम जिएँ या कि मरें कुछ नहीं ग़म शौक़ से आप
मसनद-ए-नाज़ पे फ़रमाइए एज़ाज़ से रम्ज़

मैं इसी दम तिरी तरवार से काटूँगा गला
तेग़ दिखला के मियाँ आशिक़-ए-जाँ-बाज़ से रम्ज़

बाज़ जद्दम से दर-ए-अद्ल-ए-शह-ए-आलम है
बच्चा-ए-क़ाज़ भी करता है यहाँ बाज़ से रम्ज़

क्या तअ'ज्जुब है अगर मुर्दा-ए-सद-साला जिएँ
कम नहीं मेरे मसीहा के भी एजाज़ से रम्ज़

है तुझे ख़ाना-ख़राबी ही अगर मद्द-ए-नज़र
कीजियो ऐ फ़लक उस ख़ाना-बर-अंदाज़ से रम्ज़

रम्ज़-ए-'एहसाँ' से है यानी कि ग़ज़ल और भी पढ़
सीख जाए कोई उस चश्म-ए-फ़ुसूँ-साज़ से रम्ज़