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दिल तो बरसाता है हर रोज़ ही ग़म के सावन | शाही शायरी
dil to barsata hai har roz hi gham ke sawan

ग़ज़ल

दिल तो बरसाता है हर रोज़ ही ग़म के सावन

अतहर अज़ीज़

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दिल तो बरसाता है हर रोज़ ही ग़म के सावन
फिर भी बुझते नहीं यादों के सुलगते ईंधन

ज़िंदगी ख़्वाबों की चिलमन में यूँ इठलाती है
जैसे सखियों में घिरी हो कोई शर्मीली दुल्हन

अब तो हर रोज़ ही इक आँच नई उठती है
ये मिरा जिस्म न बन जाए दहकता मदफ़न

इस से पहले कि सबा आँख-मिचोली खेले
बंद कर दो दर-ए-उम्मीद का हर हर रौज़न

शब के आईने में तस्वीर-ए-तमन्ना देखो
अक्स दिखलाएगा क्या तुम को सहर का दर्पन

इस क़दर भी तो सताओ न बहकते ख़्वाबो
दिल ताबीर की रुक जाए लरज़ती धड़कन

है वो वहशत कि हवा भी नहीं चलती 'अतहर'
बन गया कितना भयानक ये वफ़ा का आँगन