दिल से ताअत तिरी नहीं होती
हम से अब बंदगी नहीं होती
ऐसी कुछ बे-दिली सी 'ग़ालिब' है
कि तिरी याद भी नहीं होती
दिल न जब तक हो एक शोला-ए-इश्क़
ज़िंदगी ज़िंदगी नहीं होती
हैफ़ वह जस से शिद्दत-ए-ग़म में
ख़्वाहिश-ए-मर्ग भी नहीं होती
रास आती नहीं कोई तदबीर
यास-ए-जावेद भी नहीं होती
ज़ब्त-ए-ग़म भी मुहाल है हम से
और फ़रियाद भी नहीं होती
दिल-परस्ती ख़ुदा-परस्ती है
ख़ुद-परस्ती ख़ुदी नहीं होती
अल-हज़र तिश्नगी-ए-इश्क़ 'जिगर'
हाए तस्कीन ही नहीं होती
ग़ज़ल
दिल से ताअत तिरी नहीं होती
जिगर बरेलवी