दिल से निकली हुई हर आह की तासीर में आ
माँग ले रब से मुझे और मिरी तक़दीर में आ
राब्ता मुझ से दिल-ओ-जाँ का अगर रखना है
मुझ से वाबस्ता किसी हल्क़ा-ए-ज़ंजीर में आ
मैं बनाता हूँ तख़य्युल के क़लम से पैकर
मेरी तहरीर मिरे दर्द की तस्वीर में आ
ये भी मुमकिन है कसाफ़त ही दिलों की धुल जाए
मेरी आँखों से जो बहता है इसी नीर में आ
ढल न जाए कहीं ये हुस्न-ए-सुख़न ऐ 'अनवर'
दिल ये कहता है कि इस ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर में आ
ग़ज़ल
दिल से निकली हुई हर आह की तासीर में आ
अनवर कैफ़ी